Mental Health

मुक्ताक्षर

मानसिक बीमारियों में ‘सोशल प्रिस्क्रिप्शन’ दवा से ज्यादा असरदार

लेखक: Admin

उपशीर्षक: सोशल प्रिस्क्रिप्शन में चिकित्सक अपने मरीज की मन की स्थिति के हिसाब से उसे नृत्य, संगीत, तैराकी या चित्रकला जैसी किसी सांस्कृतिक गतिविधि में शामिल होने, सामाजिक कार्यों में भाग लेने या प्रकृति की सैर जैसी चीजें करने का सलाह देते हैं।

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देश-दुनिया में मानसिक विकारों से जूझ रहे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यह भी देखा जा रहा है कि ज्यादातर मामलों में दवाइयां भी उम्मीद के मुताबिक काम नहीं कर पा रही है। ऐसे में सोशल प्रिस्क्रिप्शन को अपनाने की मुहिम तेज हो रही है। ब्रिटेन ने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया है। भारत में वैसे तो मनोरोग विशेषज्ञ किसी न किसी रूप में मरीज को सोशल प्रिस्क्रिप्शन देते ही हैं लेकिन आधिकारिक तौर पर यह व्यवस्था कहीं लागू नहीं है।

क्या है सोशल प्रिस्क्रिप्शन:

वैसे तो सोशल प्रिस्क्रिप्शन को अभी तक आधिकारिक रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। फिर भी इसके नाम से ही हम जान सकते हैं कि यह सामाजिक गतिविधियों में मरीज को शामिल करने का तरीका है। इसमें चिकित्सक अपने मरीज की मन की स्थिति के हिसाब से उसे नृत्य, संगीत, तैराकी या चित्रकला जैसी किसी सांस्कृतिक गतिविधि में शामिल होने, सामाजिक कार्यों में भाग लेने या प्रकृति की सैर जैसी चीजें करने का सलाह देते हैं।

हालांकि ब्रिटेन में सोशल प्रिस्क्रिप्शन की परिभाषा तय करने का काम बेहतर तरीके से हो सकता है। इसका कारण है कि ब्रिटेन का नेशनल हेल्थ सर्विस अकेला बड़ा स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली है जो राष्ट्रीय स्तर पर सोशल प्रिस्क्राइबिंग को वित्तपोषण कर रहे हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि कोरोनाकाल में अकेलेपन से जूझ रहे लोगों को देखने के बाद यह बात और भी स्पष्ट तरीके से साबित हुई है कि सोशल प्रिस्क्रिप्शन दवाओं से ज्यादा कारगर साबित हो सकता है। दवाओं की सूची में ऐसे बहुत कम हथियार हैं जो स्वास्थ्य के सामाजिक कारकों पर काम कर सकें। ऐसे में सोशल प्रिस्क्रिप्शन समाधान बन सकता है।

चिकित्सक की भूमिका अहम:

सोशल प्रिस्क्रिप्शन को लेकर पीड़ित का इलाज कर रहे चिकित्सक की भूमिका बहुत अहम हो जाती है क्योंकि वह मरीज की रुचियों के बारे में जानता है। ऐसे में वह मरीज के साथ मिलकर एक ऐसा उपचार का तरीका तैयार कर सकता है जिसमें मरीज की सहूलियत के हिसाब से सामाजिक गतिविधियां शामिल हों। विशेज्ञषों के मुताबिक, वास्तविक सोशल प्रिस्क्रिप्शन में क्या गतिविधि रखी जाती है यह ज्यादा मायने नहीं रखता। यह कला, प्रकृति, व्यायाम या सामाजिक कार्यों से जुड़ी गतिविधि हो सकती है, इसमें व्यंजन बनाना सीखना, बागवानी करना, नृत्य सीखना आदि भी शामिल किया जा सकता है।

बच्चों में सामाजिक जुड़ाव बेहद जरूरी:

जानकारों का कहना है कि अगर किसी को शुरू से मानसिक स्वास्थ्य को बिगड़ने नहीं देना है तो उसका सीधा तरीका है कम उम्र से ही सामाजिक जुड़ाव की आदत पड़े। यानी की बच्चों में शुरुआत से ही सामाजिक जुड़ाव की भावना पैदा करनी होगी। इसके लिए अभिभावकों को आगे आना होगा। अगर किसी बच्चे का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो भी उसे जल्दी से जल्दी सामाजिक गतिविधियों में शामिल करने से फायदा मिल सकता है।

सोशल प्रिस्क्रिप्शन पर अभी और शोध की जरूरत:

अभी सोशल प्रिस्क्रिप्शन को लेकर व्यवस्थित शोध की आवश्यकता है। जो भी अध्ययन हुए हैं वो सोशल प्रिस्क्रिप्शन के पूरे प्रभाव के बारे में जानकारी नहीं देते। कैंसर जैसी बीमारियों में इस तरह की थेरेपी के फायदे सामने आ चुके हैं। मगर फिर भी अभी तक इस पर कोई व्यवस्थित शोध नहीं है जिसकी वजह से मेडिकल कम्युनिटी पूरी तरह सोशल प्रिस्क्रिप्शन के पक्ष में नहीं आई है। वैज्ञानिकों का कहना है जब तक व्यवस्थित रूप से सोशल प्रिस्क्रिप्शन को लेकर शोध नहीं की जाती तब तक सोशल प्रिस्क्रिप्शन सीमित दायरे में वैकल्पिक उपचार ही बना रहेगा। हालांकि, अब इस पर व्यवस्थित अध्ययन के लिए प्रयास शुरू हो चुके हैं।

मरीजों पर दिखे सकारात्मक परिणाम:

प्लॉस मेडिसिन जर्नल में प्रकाशित हो चुके एक लेख के मुताबिक, 3 लाख बुजुर्गों पर किए गए एक शोध के मुताबिक, अकेलेपन से मौत का खतरा एक दिन में 15 सिगरेट पीने जितना बढ़ जाता है। 2015 में आई लैंसेट की एक रिपोर्ट में बताया गया कि प्राथमिक डिमेंशिया से पीड़ित तकरीबन 1,200 व्यस्कों में से कुछ को पारंपरिक स्वास्थ्य सलाह दी गई तो वहीं कुछ को सामाजिक कार्यों और नियमित व्यायाम से जोड़ा गया। दूसरे ग्रुप में बेहतर परिणाम देखने को मिले, जबकि पारंपरिक स्वास्थ्य सलाह लेने वालों की स्थिति बिगड़ती गई। यह पाया गया कि सोशल प्रिस्क्रिप्शन ने ज्यादा फायदा दिया।

(The report is sponsored by SBI cards. Courtesy: MHFI)

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