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मुक्ताक्षर

भारत में भी जड़ जमा रहा प्रसवोत्तर अवसाद

लेखक: Admin

उपशीर्षक: 20 प्रतिशत महिलाएं प्रसवोत्तर अवसाद से पीड़ित हैं। कोविड या लॉकडाउन के दौरान गर्भवती होने या जन्म देने वाली महिलाओं में प्रसवोत्तर अवसाद का जोखिम बहुत अधिक रहा है।

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प्रसव उपरांत महिलाओं में शारीरिक और मानसिक बदलाव होते हैं जिनमें से कुछ अच्छे तो कुछ गंभीर माने जाते हैं। प्रसवोत्तर अवसाद इसी प्रकार का नकारात्मक प्रभाव है। इसको लेकर जागरूकता बहुत कम है और खुद महिलाएं भी इस पर ध्यान नहीं देतीं। प्रसवोत्तर अवसाद महिलाओं को आत्महत्या तक करने को मजबूर कर सकता है।

अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ की एक रिपोर्ट पर ध्यान दें तो प्रत्येक 4 में से 1 महिला प्रसव के बाद तनाव का शिकार हो जाती है इस तनाव को ही प्रसवोत्तर अवसाद या पोस्टपार्टम डिप्रेशन कहा जाता है। प्रसवोत्तर अवसाद को लेकर भारत में जागरूकता अभी काफी कम है। लेकिन, अब प्रसवोत्तर अवसाद के बारे में अब धीरे-धीरे ही सही लेकिन बात की जाने लगी है। भारत में 20 प्रतिशत महिलाएं प्रसवोत्तर अवसाद से पीड़ित हैं। कोविड या लॉकडाउन के दौरान गर्भवती होने या जन्म देने वाली महिलाओं में प्रसवोत्तर अवसाद का जोखिम बहुत अधिक रहा है।

साल की शुरुआत में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी के कद्दावर नेता बीएस येदियुरप्पा की नातिन सौंदर्या की 28 जनवरी को संदिग्ध हालात में मौत हो गई थी। जिसे लेकर आत्महत्या का शक जताया गया। पेशे से डॉक्टर सौंदर्या मात्र 30 साल की थीं और 4 माह पहले ही उन्होंने अपने बच्चे को जन्म दिया था। इस मामले पर कहा गया कि सौंदर्या गर्भावस्था के बाद होने वाले अवसाद से पीड़ित थीं। हालांकि, मामले की फिलहाल जांच चल रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह समस्या करीब 25 से 75 प्रतिशत महिलाओं में होती है। शुरुआती स्तर पर इसे पोस्टपार्टम ब्लूज़ कहा जाता है।

ये हैं लक्षण:

यह बीमारी नकारात्मक विचारों से शुरू होती है। इनमें हर वक्त उदासी महसूस होना, चिड़चिड़ापन, चिंता ,गुस्से का बढ़ जाना, हद से ज्यादा थकावट महसूस होना जैसे लक्षण देखे जाते हैं। धीरे-धीरे यह सब बढ़ते ही जाते हैं और फिर बात-बात में मन में अपराध बोध आना, खुद को किसी काम के लायक न समझना जैसी भावनाएं महिला के अंदर घर करने लगती हैं।

अपने नवजात के साथ घनिष्ठता बढ़ाने में भी महिला को बहुत दिक्कतें आती हैं। उसका किसी काम में मन नहीं लगता। सिर में या पेट में दर्द, भूख न लगना, रोने का मन करना और कई बार काफी देर तक बेवजह रोते रहना यह सब महिलाओं के साथ होने लग जाता है। परिवार के सदस्यों या दोस्तों तक से वह खुद को अलग कर लेती हैं और अकेले में रह कर नकारात्मक विचार लाते रहती हैं।

जानकारों का कहना है कि प्रसवोत्तर अवसाद का सामना कर रहीं महिलाओं में स्वयं को नुकसान पहुंचाने और आत्महत्या करने का ख्याल भी आता है, हालांकि ऐसा कम मामलों में ही होता है। कई बार महिला अपना बच्चा संभालना भी छोड़ देती है और बच्चे के लिए भी खतरनाक साबित हो जाती है, वैसे ये भी कम मामलों में होता है। कई मामले में मां बच्चे को किसी को हाथ भी नहीं लगाने देती।

कब पड़ती दवाइयों की जरूरत?

प्रसवोत्तर अवसाद में महिलाओं को पारिवारिक सहयोग और इलाज की जरूरत होती है। अगर लक्षण बहुत सामान्य होते हैं जैसे मनोदशा में बदलाव, उदासी, चिड़चिड़ापन, रोने की इच्छा होना, या बच्चे को कैसे संभाल पाऊंगी आदि, तो ये बदलाव कुछ समय बाद अपने आप ठीक हो जाते हैं इसके लिए दवाइयों की जरूरत नहीं होती। लेकिन, अगर लक्षण बढ़ जाए और लंबे समय तक बने रहें तो इलाज जरूरी हो जाता है।

ये हो सकते हैं कारण:

  • प्रसव बाद महिलाओं के एस्ट्रोजन, प्रोजेस्टेरोन, टेस्टोस्टेरोन जैसे हार्मोन में बदलाव होता है। जिससे उनका व्यवहार प्रभावित होता है।
  • कई प्रकार के सामाजिक और पारिवारिक कारण भी महिला को काफी तनाव और दबाव में ले आते हैं। जैसे बेटे की चाहत, बेटी पैदा न करने का अनचाहा दबाव आदि
  • महिलाओं पर बच्चे और घर की अधिक जिम्मेदारी होती है और वो शारीरिक रूप से कमजोर भी होती हैं इससे कई प्रकार के विटामिन और खून की कमी भी उनके तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) पर प्रभाव डालती है जिससे वो अवसाद में चली जाती हैं।
  • अपने शरीर के खराब हो जाने और सुंदरता चली जाने के कारण भी वह अवसाद में चली जाती हैं
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