लेखक: Admin
उपशीर्षक: द लांसेट साइकेट्री जर्नल की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना से ठीक हुए बच्चों में याददाश्त की कमी, नींद की कमी, इस्कीमिक स्ट्रोक, नर्व डिसऑर्डर, मिर्गी और दौरे जैसी तमाम मानसिक विकार बढ़े हैं।
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कोरोना के दंश से दुनिया उभर ही नहीं पा रही है। कोरोना के मामले फिर से बढ़ रहे हैं तो वहीं इससे ठीक हुए लोगों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य में हुई कमियों के बारे में भी लगातार खुलासे हो रहे हैं। द लांसेट साइकेट्री जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, कोविड से ठीक हुए बच्चों में न्यूरोलॉजिकल और मनोवैज्ञानिक (साइकेट्रिक) समस्याओं का खतरा बढ़ रहा है।
उम्रदराज और बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव अलग-अलग:
1,85,748 बच्चों पर हुए अध्ययन में यह जानकारी सामने आई है। इस अध्ययन में उम्रदराज लोगों के मुकाबले बच्चों में कोविड के बाद होने वाली परेशानियां अलग पाई गई हैं। इसलिए अगर आपको लगता है कि कोरोना वायरस ने केवल बड़े उम्र के लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर ही प्रभाव डाला है तो आप गलत हैं। बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी कोरोना ने बहुत बुरा असर डाला है।
बच्चों में बढ़ रहे ये मानसिक विकार:
रिपोर्ट के अनुसार, कोरोना से ठीक हुए बच्चों में याददाश्त की कमी, नींद की कमी, इस्कीमिक स्ट्रोक, नर्व डिसऑर्डर, मिर्गी और दौरे जैसी तमाम मानसिक विकार बढ़े हैं। यह सोचने का विषय है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि समस्या बहुत गंभीर होती जा रही है। एक तो कोरोना जाने का नाम नहीं ले रहा, बार-बार किसी न किसी रूप में यह आ ही जा रहा है। वैक्सीन व बूस्टर के बाद भी इसे खत्म नहीं किया जा सका है। वहीं जो लोग इसका शिकार हुए हैं उनमें कई प्रकार की मानसिक और शारीरिक परेशानियां बढ़ चुकी है सो अलग। बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का बिगड़ना एक बहुत ही बड़े खतरे की घंटी है।
संक्रमण के महीनों बाद भी प्रभावित करते हैं लक्षण:
शोधकर्ताओं ने 12.5 लाख से भी ज्यादा मरीजों के स्वास्थ्य रिकॉर्ड को खंगाला और यह अध्ययन किया। जिसमें पाया गया कि कैसे बड़ों से लेकर बच्चों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर कोरोना का अलग-अलग प्रभाव पड़ा है। अध्ययन में यह भी सामने आया कि संक्रमित होने के महीनों बाद भी कोरोना के लक्षण प्रभावित करते हैं। यह जानकारी भी मिली कि कोरोना संक्रमण के छह महीने बाद तक बच्चों में मनोदशा और चिंता विकार (एंग्जाइटी डिसऑर्डर) की संभावना न के बराबर होती है जबकि उम्रदराज लोगों के मामले में ऐसा नहीं कह सकते।
अध्ययन में यह भी पाया गया कि बड़ों की तुलना में बच्चों में याददाश्त के कम होने का खतरा 75 दिनों में शुरू होता है और ये खतरा करीब 491 दिनों तक बना रहता है। वहीं बच्चों में वयस्कों और बुजुर्गों की तुलना में मनोवैज्ञानिक खतरे का जोखिम बहुत ज्यादा होता है।
डेल्टा वेरिएंट दिमाग पर पड़ा सबसे भारी:
अध्ययन में यह भी सामने आया कि कोरोना का डेल्टा वेरिएंट सबसे ज्यादा भारी पड़ा विशेष रूप से मानसिक परेशानियों को बढ़ाने में। इस वेरिएंट के सामने आने के तुरंत बाद ही लोगों में इस्कीमिक स्ट्रोक, मिर्गी के दौरे, याददाश्त और नींद में कमी, और चिंता, अवसाद की समस्याओं के बढ़े हुए जोखिम का तथ्य उजागर हुआ है।
(The report is sponsored by SBI cards. Courtesy: MHFI)