Mental Health

मुक्ताक्षर

बच्चों के मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए दादा-दादी, नाना-नानी का साथ बहुत जरूरी

लेखक: Admin

उपशीर्षक: वहीं एकल परिवार के बच्चों की बात की जाये तो वो जरूरत से ज्यादा उग्र होते हैं या फिर जरूरत से ज्यादा डरपोक

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जो बच्चे दादा-दादी, नाना-नानी और घर के बुजुर्गों के साथ समय व्यतीत करते हैं उनका मानसिक और भावनात्मक विकास बेहतर तरीके से होता है। कई अध्ययनों में यह बात सामने आ चुकी है। वर्तमान में जिस प्रकार बच्चों के व्यवहार में परिवर्तन आ रहा है उसे देखते हुए लगने लगा है कि बुजुर्गों के साथ की उनको बहुत जरूरत है।

नकुल महज आठ साल का है लेकिन उसकी हरकतें बच्चों जैसी नहीं रह गई है। जैसे-जैसे वह बड़ा हो रहा है, और ही ज्यादा चिड़चिड़ापन और बदमिजाजी उसमें आती जा रही है। मम्मी-पापा और बड़ों को जवाब देना, और छोटों के साथ लड़ाई करना मानो रोज की बात हो चुकी है। उसकी माँ यह सोच कर परेशान थी कि आखिर कैसे काबू में करें इसको। हर बात तो मानते हैं पता नहीं कहाँ कमी रह गई है। नकुल एकल परिवार का एकलौता बच्चा है।

बच्चे नहीं कर पा रहे सामंजस्य:

वहीं एक दूसरे मामले में दस साल का विहान अपने मम्मी-पापा का इकलौता बेटा है। विहान के पास किसी चीज की कमी नहीं है, लेकिन जैसे ही घर में कोई रहने आता है, भले ही उसका हमउम्र भी हो, उसे अच्छा नहीं लगता। वह किसी के साथ जरा भी सामंजस्य नहीं कर पाता। अपनी चीजें साझा करना तो उसे जरा भी पसंद नहीं है। मम्मी-पापा भी उससे डरते हैं और किसी को भी उसकी चीजें न लेने को कहते हैं। इस प्रकार के किस्से अब आपको अधिकतर घर में देखने को मिल जाएंगे। ऐसे एकल परिवार के एकलौता बच्चों का व्यवहार उग्र और असभ्यता से भरा होता है। आखिर क्या वजह है सब कुछ मिलने के बाद भी बच्चे ऐसे होते जा रहे हैं कि उनके मम्मी-पापा भी उनसे डरने लगे हैं।

दादा-दादी, नाना-नानी बहुत जरूरी:

इन मामलों के बारे में बाल मनोवैज्ञानिक सुनीता बत्रा बताती हैं कि व्यवहार संबंधी ऐसी शिकायतें एकल परिवार के बच्चों में ज्यादा देखने को मिल रही हैं। ये वो बच्चे हैं जिनको अपने दादा-दादी और नाना-नानी से मिलने में सालों लग जाते हैं। इनको शुरू से ही अपने आसपास बस मम्मी-पापा नजर आते हैं। और वर्तमान में मम्मी-पापा भी भारी दबाव में हैं, जिसका असर बच्चों पर पड़ रहा है और उनका मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा है। दरअसल, बच्चों को बुजुर्गों का साथ और उनका दुलार मिल ही नहीं रही, जिससे वह संस्कार जो दादा-दादी और नाना-नानी देते थे उनमें नहीं आ पाए।

अभिभावकों की समस्या को दिमाग में बैठा रहे:

मम्मी-पापा केवल बच्चों को भौतिक सुख-सुविधाएं ही दे पा रहे हैं। सही मायने में बच्चों को अकेले संभाल पाना उनको भी नहीं आ रहा। ऐसे में बच्चे या तो स्वार्थी बन रहे हैं या मम्मी-पापा की समस्याओं को अपने मन में बिठा रहे हैं।

अति उग्र या अति डरपोक:

इस बारे में दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल में काउंसलिंग देने वाली नेहा बताती हैं कि संयुक्त परिवार के बच्चे स्कूल में अब कम ही होते हैं। लेकिन हमने देखा है कि ऐसे बच्चों में आज भी गलती करने का डर होता है। घर के बुजुर्गों जैसे दादा-दादी, नाना-नानी के दिए संस्कार उनमें नजर आते हैं। वहीं एकल परिवार के बच्चों की बात की जाये तो वो जरूरत से ज्यादा उग्र होते हैं या फिर जरूरत से ज्यादा डरपोक। वहीं उनके अभिभावक ही खुद इतने संवेदनशील होते हैं कि बच्चों से पहले उनको समझाने में समय जाता है।

कहां हो रही कमी:

नोएडा के एक स्कूल की शिक्षिका वर्तिका वर्मा कहती हैं कि संयुक्त परिवार के बच्चे दादा-दादी से प्रेम, समर्पण, सम्मान देने और सहयोग करने जैसी भावनाएं सीखते हैं। बुजुर्गों के साथ रहने से न केवल बच्चे, बल्कि उनके माता-पिता को भी अलग-अलग स्थितियों को संभाल पाने में आसानी होती है। इससे बच्चों का मनोबल बना रहता है। एकल परिवार के बच्चे माता-पिता और उनसे जुड़ी हर एक समस्या को सुनते रहते हैं। इसका बुरा असर उनपर पड़ता है और कहीं न कहीं उनका आत्मविश्वास भी कम रहता है। परेशानी यह है कि आजकल माता-पिता भी बड़ों के साथ रहने से कतरा रहे हैं जिसका बुरा असर बच्चों पर ही पड़ रहा है।

(The report is sponsored by SBI cards. Courtesy: MHFI)

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